Friday 10 September 2021

बेफ़िक्र बचपन

ना गुड्डे थे ना गुड़िया थी 
ना मोटर चाभी वाली थी 
एक छोटा सा घर था मेरा 
उसमे एक छोटी सी क्यारी थी

अम्मा उस क्यारी में हमको
हर रोज़ जुटाया करतीं थीं
धनिया, मिर्चा, पयाज़, पुदीना
ना जाने क्या क्या उगाया करतीं थीं 
पर मेहनत करने पर जी भर कर
बर्फ चीनी खिलाया करतीं थीं
और बाबा घर आते थे जब तो 
अंगीठी पर भुट्टे भूने जाते थे 
अमरुद के पत्तों पर तब लहसुन की चटनी परोसी जाती थी

ना गुड्डे थे ना गुड़िया थी...
एक छोटा सा घर था मेरा...

घर के पीछे वाले अहाते में 
हम सब जामुन तोड़ा करते थे 
और ज़्यादा ऊंचे चढ़े पेड़ पर
तो बाबा डाँटा करते थे 
अल्हड़पन और बेफिक्री में 
तब दिन बिताये जाते थे 
भुट्टे, अमरुद, बेर, जामुन को, हर शाम लुभाती जाती थी 

ना गुड्डे थे ना गुड़िया थी...
एक छोटा सा घर था मेरा...

सावन के पहले ही दिन सब 
लकड़ी के पटरे ढूंढ़ा करते थे 
बरगद पर झूला पड़ता था
ढेरों बच्चे झूला करते थे 
ना तेरा था ना मेरा था 
बस पेंग बढ़ाते जाते थे 
सावन की मस्ती में भर कर, सुर-ताल मिलायी जाती थी

ना गुड्डे थे ना गुड़िया थी...
एक छोटा सा घर था मेरा...

पीपल की सर सर को सुन कर 
तब मस्ती से सो जाते थे 
सूरज की किरणों से पहले
हम, चिड़िया से बतियाते थे 
चादर ताने पड़े रहे तो, चाचा  
मुंह पर पानी डाला करते थे
फिर, डाँट डपट और लाड प्यार से, हमारी तक़दीर सँवारी जाती थी 

ना गुड्डे थे ना गुड़िया थी...
एक छोटा सा घर था मेरा...

छोटे से दो कमरों को माँ 
दिन भर चमकाया करती थी
चिटकी फर्शों को देख - 2 
थोड़ा झल्लाया करती थी 
पर मेरे उस शीश महल में 
पर मेरे उस शीश महल में, हर एक छोटी चीज़, जगह पर पायी जाती थी 

ना गुड्डे थे ना गुड़िया थी
ना मोटर चाभी वाली थी 
एक छोटा सा घर था मेरा
उसमे एक छोटी सी क्यारी थी


Sunday 2 August 2020

आज फ़िर त्यौहार है

आज फ़िर त्यौहार है
पकवान हैं, मिठाईयाँ हैं, शोर- शराबा है
पर तुम नहीं हो 
रक्षाबंधन है तो क्या हुआ?
बुआ की भेजी राखी तो हम ही बांधते थे  
रोली टीका चन्दन भी हम ही लगाते थे 
टीके के वक़्त हर बार 
तुम्हारे चौड़े माथे का ज़िक्र होता 
और तुम हँस कर कहते
'मैं बहुत भाग्यशाली हूँ ना, दीर्घायु हूँ'
हर बार रोटी और पूरी पर चर्चा होती 
तुम कहते 'अरे एक दिन हम भी पूरी खा लेंगे,
इन्सुलिन ही तो है थोड़ी सी डोज़ बढ़ा लेंगे'
और हम कहते नहीं-नहीं हम सब रोटी खाएंगे
पूरी खाने से मोटे ही हो जायेंगे
तुम चिढ़ जाते  'अरे त्यौहार है 
एक-आध लड्डू से कुछ नहीं होगा'
और हम छोटी सी कटोरी में 
एक चौथाई टुकड़ा ले जाते 
तुम बुझे मन से देखते 
पर फ़िर कुछ नहीं कहते
कई बार देर रात में 
तुम्हे फ़्रिज में कुछ ढूँढ़ते देखा
पकड़े जाने पर तुम सकपका जाते 
'खाया नहीं बस टेस्ट किया है' 
कह के वापस चले जाते  
जानते हो! अब घर में सब कुछ बनता है
खाने- बनाने पे कोई चर्चा नहीं होती 
किसी को कोई परहेज़ नहीं 
पर किसी चीज़ में कोई स्वाद भी नहीं 
मिठाईयाँ और त्यौहार सब फ़ीके हैं  
ख़ैर! तुम चिंता मत करना 
जहाँ भी हो बस बिंदास रहना 
हम सबने आदत डाल ली है 
अब मैं चलती हूँ, 
राखी की थाली भी तो सजानी है 
थोड़ी बहुत मिठाईयाँ भी बनानी हैं 
दुनिया की हर रीत निभानी है 
और तुम भी तो हमेशा यही चाहते थे 
आज फ़िर त्यौहार है
पकवान हैं, मिठाईयाँ हैं, शोर- शराबा है
और साथ ही कुछ ख़ालीपन भी 


Wednesday 24 June 2020

बहुत हुई बातें ज़िन्दगी की

बहुत हुई बातें ज़िन्दगी की, अब कुछ मौत की भी चर्चा होनी चाहिए
कितनी विषैली, विकृत, विकराल है से परे   

जीवन चंचल है विह्वल है; मृत्यु शांत है निश्छल है
जीवन संघर्ष है रण है;  मृत्यु एक सरल समर्पण है
जीवन मोह है बंधन है;  मृत्यु मुक्ति का अभिनन्दन है 
जीवन तृष्णा है पिपासा है; मृत्यु संतुष्टि है ईश्वर की अभिलाषा है 

जीवन धर्म है ज्ञान है खोज है; मृत्यु परिपालन है अनुकरण है भोग है
जीवन सहस्रों अध्यायों का संकलन है; मृत्यु समीक्षा है अभिकलन है
जीवन निरंतरता है, एक रोमांचक यात्रा है; मृत्यु ठहराव है मोक्ष का अंतिम पड़ाव है

मृत्यु इस यात्रा का अंतिम गंतव्य है; मृत्यु अंत नहीं अपितु प्रारंभ है; 
मृत्यु जीवन का अर्थ  सिखलाती है; मृत्यु ही ईश्वर से मेल कराती है
मृत्यु विध्वंस नहीं  क्रंदन नहीं एक सहज सरस आलिंगन है; 

जीवन तो बस एक छलावा है भ्रम है; मृत्यु ही परम सत्य है 
मृत्यु ही परब्रह्म है; इसीलिए 
जीवन के साथ-2 कभी क़दार मृत्यु पर भी चर्चा होनी चाहिए
कितनी विषैली, विकृत, विकराल है से परे   

Wednesday 11 December 2019

कुछ अटपटी कुछ चटपटी सी बातें

जब दीवार पे पैर टिकाये खड़े,
घंटों बीत जाते थे
नहीं नहीं, बैठूंगा नहीं कहते- कहते भी
तुम एक-आध घंटे और रुक ही जाते थे
जब बातों- बातों में दोपहर से शाम
और शाम से रात हो जाती थी
जब पहली से आख़िरी बस का सफ़र
तुम घड़ी पे नज़र गड़ाए यूँ ही
तय कर जाते थे, और फ़िर भी अंत में
ऑटो पकड़ कर ही घर जाते थे
तब कई बार के अलविदा के बाद भी
शेष रह जातीं थीं ना जाने कितनी
अटपटी सी चटपटी सी बातें
तुममे मुझको, मुझमे तुमको
ज़िंदा रखतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें

जब परिस्थितियों की जटिलता
माहौल में भारीपन सा भर देती थी
जब अपरिहार्य मौन की चादर हमे
स्वयं में पूरी तरह ढक लेती थी
जब मैं तुम्हे चुपके से देखती पर
तुम नज़रें कहीं दूर गड़ाए रहते थे
जब बहुत कुछ होता था कहने को
पर शब्द चुपचाप ही आँखों से
टपक जाया करते थे,
जब अर्थपूर्ण सब गूढ़ बातें
बेमानी सी लगतीं थीं,
तब उस सन्नाटे को चीर हमे
ठहठहाने को मजबूर कर देतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें
तुममे मुझको, मुझमे तुमको
ज़िंदा रखतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें

Friday 28 June 2019

कुछ था मुझमें

कुछ था मुझमें जो तुम्हारे साथ चला गया
तुम्हारा अक्स, तुम्हारी परछाईं  ढूंढ़ती हूँ 
तुम्हारी यादों की सीपी को मुठ्ठी में बाँधें 
लड़खड़ाते पाँवों से हर रोज़ बढ़ती हूं 
जानती हूँ की इस सीप से अब फ़िर
कभी कोई मोती नहीं निकलेगा  
कहते थे तुम लिखती रहना 
मेरे लफ़्ज़ , वो अल्फ़ाज़ जो 
मन के किसी कोने में बिखरें हैं 
को बड़ी मुश्किल से बीनती हूँ 
तरसती हूँ जब तुम्हें इक पल देखने को 
तो बस धीरे से ये आँखें मूँद लेती हूँ 
देखती हूँ तुम्हे नन्हे-२ पाँवों से
किसी के आँगन में खेलते 
सोचती हूँ एक प्यारी सी माँ होगी 
जो तुम्हारे माथे को सहलाती होगी 
तुम्हे मीठी-२ लोरियाँ सुनाती होगी 
शायद कोई चंचल सी बहन होगी 
जो बात-बात पर लाड़ दिखाती होगी 
रूठते होगे तुम तो बाँहे गले में डाल  
बड़े प्यार से झूल जाती होगी 
इतने में ही आँखों से कुछ मोती
मेरी बंद मुठ्ठी पर टपक जाते हैं  
और होंठों पर हल्की सी मुस्कान
लिए, मैं फिर जी पड़ती हूँ  
कुछ लोग कहते हैं मैं कमज़ोर हूँ 
पर क्या किसी को अपनी हर साँस में
ज़िंदा रख पाना साहस नहीं ?
कौन जाने? शायद हो भी, पता नहीं
एक सन्नाटा सा पसरा है हर ओर अब
और इसी चादर को ओढ़े मैं सोती हूँ
तुम्हारी यादों की सीपी को मुट्ठी में 
भींचे हर रोज़ गिरती-सम्हलती हूँ 
वो लफ़्ज़, वो अल्फ़ाज़ जो न जाने
कहाँ गुम हो गए,को खोजती-बुनती हूँ
कहते थे तुम लिखती रहना, सिर्फ
इसलिए एक बार फिर लिखती हूँ 
कुछ था मुझमें जो तुम्हारे साथ चला गया 
तुम्हारा अक्स, तुम्हारी परछाईं ढूंढ़ती हूँ...




Tuesday 27 November 2018

मैंने छोड़ दिया

अपने अंतर्मन, स्थितियों में परिवर्तन
से मैंने लड़ना छोड़ दिया
जो पाया उस पर ख़ुद को अर्पण
जो रहा शेष का मंथन छोड़ दिया

अपने अंतर्मन...

चलती रही प्रगतिपथ पर,
तीव्रतम वेग से
हर क्षण जीने को एक मादक संवेग से
पाँवों की कम्पन, श्वासों की टूटन
का मैंने क्रन्दन छोड़ दिया

अपने अंतर्मन...

पावन  मन  से  स्वकर्म  किया
पीड़ा, अपमान का विष भी पिया
अब प्रियजन के आक्षेपों का
यूँ मैंने खण्डन छोड़ दिया

अपने अंतर्मन, स्थितियों में परिवर्तन
से मैंने लड़ना छोड़ दिया

Tuesday 12 June 2018

घाट नही जातीं बेटियाँ


नहीं  नहीं  घाट नहीं जातीं  बेटियाँ 
जाते हैं पुरुष- बाप बेटा भाई भतीजा 
यहाँ तक की दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी
कोई मोह में तो कोई औपचारिकता वश 
परंतु यह कैसे स्वीकारें बेटियाँ?

कसमसातीं बेटियाँ, तिलमिलातीं बेटियाँ 
पिता की अर्थी संग शमशान जाने को;
गिड़गिड़ातीं बेटियाँ,
मुखाग्नि की कामनारत, दाह में
शामिल होने तक को तरसती बेटियाँ

क्योंकि,
क्योंकि घाट नही जातीं बेटियाँ

पिता-पुत्री के संबंधों का सम्मान हुआ  
सशर्त ही सही, किंतु
बेटियों के घाट जाने का प्रावधान हुआ,
अधिकारों की भिक्षा पाकर मुस्कुराती बेटियाँ
कुरीतियों में परिवर्तन से हर्षाती बेटियाँ 
दूर से ही पर कम से कम अब
पिता को देख तो सकतीं थीं बेटियाँ

किन्तु स्त्रियों की राह इतनी सरल कहाँ?

घाट से पहले फिर रोकी गयीं बेटियाँ
अपनी इस धृष्टता पर टोकीं गयीं बेटियाँ
'यहाँ तक आने का दुस्साहस तो कर
लिया; अब आगे एक क़दम ना बढ़ाना'
आधुनिक समाज के इन युवाओं पर
आश्चर्यचकित बेटियाँ, निःशब्द
भीगे चक्षुओं से देखती रहीं बेटियाँ

क्योंकि,
क्योंकि घाट नही जातीं बेटियाँ

तभी किसी देवपुरुष ने दूर बने पुल से
पिता को देख सकने की युक्ति जताई
वो सड़क वो पुल किसी के बाप का नहीं
ये वास्तविकता सबको याद दिलाई

आशा की किरणों को कंधों पे उठाये
पुल की तरफ़ भागती बेटियाँ
अग्नि में समर्पित पिता को निहारती बेटियाँ
विछोह व परंपराओं के बीच उलझती बेटियाँ
अनेकोनेक प्रश्नों का उत्तर खोजती बेटियाँ

पर तभी,
मुख से लकड़ियों को दूर फ़ेंकते पिता ने
जैसे स्वयं अंतिम दर्शन देते हुए कहा
''बिटिया! तुम्हे एक नज़र देखने को
बहुत तड़प रहा था मैं भी; जानता हूँ
ये समाज तुम्हे आगे भी क़दम-२ पर रोकेगा
किन्तु डरना नहीं , हारना नहीं , साहस रखना
क्यूँकि सशरीर न सही;
पर मैं आत्मा हमेशा तुम्हारे साथ हूँ ''

बेटों जैसे पाली जातीं, बेटे का हर फ़र्ज़ निभातीं
फिर भी बेटे की अनुपस्थिति में,
वो बन के रह जातीं हैं तो सिर्फ बेटियाँ
उस दिन दक़ियानूसी विचारधारा  पर
प्रेम की एक छोटी सी जीत हुई थी

क्योंकि, उस दिन घाट गयीं थीं बेटियाँ
क्योंकि, उस दिन घाट गयीं थीं बेटियाँ 

Wednesday 7 February 2018

वो आख़िरी मुलाक़ात

कुछ अप्रत्याशित सी थी हमारी
'वो आख़िरी मुलाक़ात'
कितना दिव्य था आपका वह स्वरूप
मुख पर विजय के भाव, गंभीर भंगिमा,
वही प्रभावशाली व्यक्तित्व, शांत चेहरा,
चौड़ा माथा, वही बड़ी बड़ी आँखें,
जैसे मुंदी हुई किसी सुंदर स्वप्न में खोयी हों
चारों ओर के कोलाहल से परे उस गहन निद्रा का
रसपान करते आप इतने संतुष्ट लग रहे थे
जैसे वर्षों से ऐसी ही नींद की प्रतीक्षा में हों
आपके आनन्दित  मुख को देख क्षण भर को
मैं भूल ही गयी की अब आप फिर कभी नही उठेंगे
मन करता रहा कि आपको यूं ही निहारती रहूं
नींद नही आती थी ना आपको?
माथे को सहलवा कर, तो कभी तलवों को मलवा कर
टुकड़ो मे मिलने वाली उस नींद से ऊब चुके थे आप
सन्नाटा भी बहुत अधिक व्यथित करता था आपको
पर उस दिन कितनी भीड़ थी आपके चारों तरफ
हर कोई माल्यार्पण को, चरण स्पर्श करने को ,
आपकी एक झलक पाने को तत्पर था
परंतु सबसे विमुख हो आप जैसे अपना
निर्णय ले चुके थे, जैसे सबसे पूंछ रहे थे
कि कहां थे तुम सब जब मैं हर रोज़
कुछ और अकेला हो रहा था,
कहां थे जब मैं ज़िन्दगी से हर रोज़
लड़ते हुए कुछ और थक रहा था,
एक मज़बूत चट्टान थे आप
वो चट्टान जो बहुतों को आश्रय तो देती है
पर सबसे अधिक आघात भी झेलती है
और उसका संरक्षण सिर्फ अवनि या आकाश,
ही कर पाते हैं, फूलों से सजे आप किसी
चक्रवर्ती सम्राट से दिख रहे थे और जब यहां
लोग छोटी-बड़ी बातों का रोना लिए बैठे थे
आप हर्षित से अपने स्वर्ण रथ पर सवार
तेज़ी से स्वर्गलोक की ओर बढ़ रहे थे
वास्तव मे, बहुत अप्रत्याशित ही थी
हमारी 'वो आख़िरी मुलाक़ात' 

Wednesday 29 March 2017

माँ तुम होती हो तो

माँ तुम होती हो तो नींद अच्छी आती है
माथे की शिकन ख़ुद-ब-ख़ुद कम हो जातीं है
जब तुम चाय का प्याला हाथ में लिए मुझे जगाती हो
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म,
तुम्हारी ममता में खो जाती है
जब तुम ख़ुद बिना विराम के मुझे विश्राम को कहती हो
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म
मेरी विवशताओं में खो जाती है
जब तुम ख़ुद को अनदेखा कर मेरी चिन्ता जताती हो
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म,
मेरी विफलताओं में खो जाती है
जब तुम बिना कुछ कहे दिन भर अकेले जूझती हो
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म
मेरी दुर्बलताओं में खो जाती है
जब तुम कुछ कहते कहते विचलित हो जाती हो
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म
मेरी असहायता में खो जाती है
जब तुम्हारी बातों में वो दर्द, वो थकान झलकती है
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म
इस खोखली सामाजिकता में खो जाती है
तुम अपनी सहनशीलता का बखान नहीं करती
और ना ही अपनी उपलब्धियों के किस्से सुनातीं
तुम तो बस चुपचाप अपना धर्म निभाती हो
बिना किसी आशा के, बिना किसी आश्वासन के
कदाचित ही तुम्हारी नींद कभी पूरी होती है
फिर भी, तुम होती हो तो नींद अच्छी आती है
माथे की शिकन ख़ुद-ब-ख़ुद कम हो जातीं है
माँ तुम होती हो तो...

Thursday 23 March 2017

देखो ज़रा देखो

देखो भाई देखो
ज़रा इनको भी देखो
हाथ जोड़े खड़े हैं 
खीस निपोरे खड़े हैं 
पैर पकड़े खड़े हैं 
उलटे लटके खड़े हैं 

स्वार्थ में लिप्त खड़े हैं 
परमार्थ से तृप्त खड़े हैं 
लाभ दिखता जहाँ भी 
सेवा में विक्षिप्त खड़े हैं

सामाजिकता से रोगग्रस्त हैं 
सबसे बनाये रखने में व्यस्त हैं 
सच कहने - सुनने से डरते हैं
हर बात पर हामी भरते हैं

सुख में हिस्सेदार बने हैं 
दुःख में सबसे दूर खड़े हैं 
बहानों की लंबी सूची लिए 
देखो तो कैसे हितैषी बने हैं 

विचलित ये मन, हौले से कहे है
ये इंसान  नहीं हैं, बस मुखौटे चढ़े हैं 

देखो भाई देखो
कोई इनको भी देखो 
ख़ुद को भूले खड़े हैं 
रीढ़ के बिन पड़े हैं

हाथ जोड़े खड़े हैं 
खीस निपोरे खड़े हैं 
पैर पकड़े खड़े हैं 
उलटे लटके खड़े हैं

देखो भाई देखो...

Friday 9 December 2016

फिर खो गयी मैं

आज फिर तुममे खो गयी मैं
निहारती रही तुम्हे निःशब्द
एकाग्रचित यथास्थान खड़ी मैं
भर गया मन रोमांच से, गर्व से
देखकर तुम्हारा वो युद्ध कौशल
आशांवित तुम्हारी विजय को
टकटकी लगाए यूँ मौन खड़ी मैं

पल - पल बदलते तेवर
हर  क्षण  आक्रामक  भाव
आत्मरक्षण को संघर्षरत तुम
दमकते रहे फिर भी  कुंदन से
न भय, न तनाव, न हतोत्साह
बस असीम आत्मविश्वास और
एक आकर्षक तेजमय मुस्कान
उस मोहक रूप की दासी बनी मैं

निहारती रही तुम्हे निःशब्द
एकाग्रचित यथास्थान खड़ी मैं
आज फिर तुममे खो गयी मैं
आज फिर तुममे खो गयी मैं

उबर सके उस चक्रव्यूह से, तुम ,
बन कर एक कांतिवान विजेता
समेटे उस समस्त कालिमा को
अपने उज्जवल विशाल अंतर में
उस  अप्रतिम  विजय  की
तब  सहर्ष  साक्षी  रही  मैं
प्रफुल्लित, उत्साहित, गौरान्वित
निहारती रही तुम्हे बस निःशब्द
एकाग्रचित यथास्थान खड़ी मैं
आज फिर तुममे खो गयी मैं

आज फिर तुममे खो गयी मैं...


Saturday 9 January 2016

बेटी

तू बेटी नहीं, 
तू सहेली है; कुछ उलझी, 
कुछ सुलझी सी पहेली है
जीवन को जो रौशन कर दे
ऊषा की किरण नवेली है  
                                 
तू बेटी नहीं, 
तू सहेली है ;कुछ उलझी, 
कुछ सुलझी सी पहेली है
   
देवी का सा रूप तुम्हारा
नयनों में बृह्माण्ड है सारा  
मुख मण्डल पर तेज विराजे
भाव भंगिमा नित नव साजे
यौवन को फिर बचपन कर दे
मदमस्त तेरी अठखेली है   

तू बेटी नहीं, 
तू सहेली है ; कुछ उलझी, 
कुछ सुलझी सी पहेली है 

क्या कुछ खोया फिर तुझको पाया  
तुझमें दिखता है इक हमसाया 
यूँ ढलते दिन यूँ बीतीं रातें   
मन ही मन होतीं कितनी बातें
हर पीड़ा छू - मन्तर कर दे     
वो प्यारी तेरी बोली है 

तू बेटी नहीं, 
तू सहेली है ; कुछ उलझी, 
कुछ सुलझी सी पहेली है 

Wednesday 29 July 2015

माँ

माँ तुझको अब क्या बतलाऊँ
तुझ सा हृदय कहाँ से लाऊँ 

भोली प्यारी सी तेरी सूरत 
तू ममता करुणा की मूरत  
तेरे आँसू कैसे झुठलाऊं
क्या मैं, तुझको थोड़ा सुख दे पाऊँ?

माँ तुझको अब क्या बतलाऊँ
तुझ सा धैर्य कहाँ से लाऊँ 

ख़ुद जगती पर हमें सुलाती 
भूखी रहकर भी हमें खिलाती
तुझ सा जीवन कैसे जी पाऊँ 
क्या मैं, तेरी परछाईं बन पाऊँ ?

माँ तुझको अब क्या बतलाऊँ
तुझ सा त्याग कहाँ से लाऊँ

प्रसव की पीड़ा तो सह जाती
शिशु रूदन से पर घबराती
तुझ सी कोमलता कैसे पाऊँ
क्या मैं, तेरे आँचल में छुप जाऊँ?

माँ तुझको अब क्या बतलाऊँ
तुझ सा प्रेम कहाँ से लाऊँ 

बस ऐसे ही

पल पल बदलते समीकरण 
क्षण क्षण बदलते समीकरण 
लाभ व हानि की तुला पर
गिरते सम्हलते  समीकरण 

********************************
मेरी छाँव मे तुझे सुकून मिले न मिले
तेरी पनाह मे मुझे जन्नत नसीब होती है
**********************************
बस में कहाँ मेरे शान-ओ-शौक़त दे पाना तुझको
पर कोशिश है की ये बचपन मैं प्यार से भर दूँ
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कब बदलना चाहा था मैंने ऐ ज़िन्दगी
इक तूने ही तो मजबूर कर दिया
जो क़द्र कर लेती ज़रा सी पहले ही
तो फ़िर आज यूँ शिकायतें न होतीं
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चूमेगी क़ामयाबी जब क़दम तेरे,
तो ज़माना जलेगा भी और बातें भी होंगी
**********************************
थाम कर तूने ये उँगलियाँ
बड़ी ख़ूबसूरती से मुझे
फिर ज़िन्दा कर दिया
**********************************
कुछ आज़ाद लम्हे क्या मांग लिए,
तुझसे ऐ ज़िन्दगी
तूने मुझे तुझसे ही आज़ाद कर दिया
**********************************
एक अनचाहा सन्नाटा
एक अनजानी दीवार
ना जाने कितने ढूंढ रहे
इसमें जीवन का सार
**********************************
ये चार दीवारें तो बस
इंसान की क़ैद को हैं
वरना आवारा परिंदे तो
खुले आसमां में उड़ा करते हैं
**********************************
कुछ पुराने कागज़ों को खंगाला तो
इक अलग ही शख़्स से मुलाक़ात हुई
कुछ पल बिताये जो साथ तो जाना
कि बाक़ी कुछ भी तो नहीं बदला
बस हम ही थोड़ा बदल गए
**********************************
वो झुर्रियाँ कुछ उम्र से
पहले दिखाई देतीं थीं
आँखें भी उसके चेहरे पे
धंसी, पथरायी रहतीं थी
देखा जो बरसों बाद उसने
ख़ुद  को, आईने में ग़ौर से
वो शक्ल उसे कुछ पहचानी
मगर धुंधलाई दिखती थी
**********************************
शौक़ीन तो हम भी हुआ करते थे मगर
उम्र बीती बस दाल रोटी जुटाने में
ज़िम्मेदारियाँ तो ख़ैर कुछ कम न हुईं
अब कहते हैं अलविदा इस ज़माने से
**********************************
औक़ात कहाँ मेरी शान-ओ-शौक़त दे पाने की तुझको
इतनी कोशिश है की तेरा बचपन मैं प्यार से भर दूँ
**********************************
आज कल हिचकियाँ आने पे भी ताज्जुब होता है
कि हमे याद करने वाले भी दुनिया में बाक़ी हैं
**********************************
नींद तो सड़क किनारे चटखती धूप में भी आ जाती है
मख़मली गद्दों पे तो लोग सिर्फ करवटें बदला करते हैं



Wednesday 21 January 2015

विश्वास

एक नयी सुबह, एक नयी ऊर्जा,
सामने है फिर वही अपार
संभावनाओं भरा आसमान

फिर खड़े हैं आज हम,
बिखेरे इस मुख मंडल पर, 
वही, एक निश्छल सी मुस्कान
बढ़ रहे हैं कर्मपथ पर, 
भरे मन में साहस, करने 
हर चुनौती का सम्मान

एक नयी सुबह, एक नयी ऊर्जा...

फिर उठे हैं आज,
गिरने को इसी मरूभूमि में,
सोचते हैं चूर करने को
प्रकृति का अभिमान, 
चल रहे हैं इक सफ़र पर, 
खोजने उस नव स्वयं को, 
अब डर नहीं, चिंता नहीं
पर राह कब होती आसान ?

एक नयी सुबह, एक नयी ऊर्जा...

फिर डूबे हैं आज, चुनने को
कुछ अनमोल मोती, 
संकल्प है ना लौटने का
चाहे अब तजने हों प्राण
एक नयी सुबह, एक नयी ऊर्जा,
फिर सामने है, वही अपार
संभावनाओं भरा आसमान

Friday 12 December 2014

प्रकृति

सुना है कि!!!
जब दर्द आँखों से छलकता है, तो कविता बनती है
इन शब्दों की हर कड़ी, हम-आप से कुछ कहती है
जब रात की ख़ामोशी दिन के कोलाहल से, ज़्यादा सुख देती है
जब पत्तों की सरसराहट इन कानों में, चुपचाप से कुछ कहती है
जब झींगुरों की आवाज़ किसी मधुर संगीत सी, मोहक लगती है
जब जुगनुओं की चमक तमाम रौशनी को, मद्धम करती है
जब मिट्टी की भीनी-२ ख़ुश्बू, किसी इत्र सी सुगन्धित लगती है
जब बादलों की गड़गड़ाहट मन मे एक, उमंग सी भर देती है
जब ओस की नन्ही-नन्ही बूँदें इस तन-मन को, भिगो देतीं हैं
जब रंग-बिरंगी कलियाँ जीवन के तम को, धो देतीं हैं
जब कोयल अपने साथ कुहुकने को, मजबूर कर देती है
और जब प्रकृति वात्सल्य से हमें, अपनी गोद में भर लेती है
तब ज़िन्दगी बस इन्ही कुछ लम्हों में, सिमट जाती है
वास्तविकता ये है कि, तब भी एक कविता बनती है
और वो कविता लिखी, पढ़ी, कही या सुनी नहीं जाती
बल्कि हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में जी जाती है

Tuesday 11 November 2014

चिरैय्या

रंग बिरंगे पंखों वाली
फुदक-२ कर चलने वाली
ओ नन्ही प्यारी सी चिड़िया
तू मेरे अंगना कब आएगी?

सुबह शाम मैं नयन गड़ाए
उस विस्तृत नीले अम्बर पर
तकती हूँ निज आस लगाए
तू एक झलक कब दिखलाएगी?

ओ नन्ही प्यारी सी चिड़िया
तू मेरे अंगना कब आएगी?

नही मैं उन इन्सानों में से
डाल के कुछ दाने धरती पर
करते हैं क़ैद पिंजरे में तुझको
नित निज मन बहलाने को

मेरा उर तो आनंदित होता
तेरी मीठी सी बोली सुनकर
तेरा चलना वो फुदक-२ कर
तेरा उड़ना वो निर्भय होकर

है विश्वास मुझे इक दिन तू 
तोड़ के पिंजरा उड़ जाएगी
ओ नन्ही प्यारी सी चिड़िया
तू मेरे अंगना कब आएगी?

तेरी निश्छलता और निर्भयता
मुझको कुछ प्रेरित कर जाती
कहती है एक झलक तेरी के
शायद मैं तुझ सी बन पाती

यद्यपि  यह  सम्भव  नही
फिर भी इस चित्त की शांति तो
है; तुझसी चंचलता,  निर्भयता
स्वछन्दता और गति में ही

बस माँगूं मैं तुझसे इतना
क्या मुझको साथ उड़ा पाएगी?
ओ नन्ही प्यारी सी चिड़िया
तू मेरे अंगना कब आएगी?

ओ सखी! जाने अन्जाने सही
पर हममें एक समानता है
हम दोनो को क़ैद करने यहाँ
अनगिनत शिकारियों का ताँता है

शायद इसलिए, ना चाह कर भी
मैं तुझमें खुद को देखती हूँ
बन्द आँखों से उस विस्तृत
विशाल गगन को भेदती हूँ

और शायद इसलिए ही
सुबह शाम मैं नयन गड़ाए
उस विस्तृत नीले अम्बर पर
तकती हूँ निज आस लगाए
तू एक झलक कब दिखलाएगी?

ओ नन्ही प्यारी सी चिड़िया
तू मेरे अंगना कब आएगी?

Saturday 27 September 2014

एहसास

ना जाने क्यूँ  
ये ज़िन्दगी  उदास है 
आखिर इस दिल को 
किसकी तलाश है 
चलते चलते इन 
टेढ़े मेढ़े रास्तों पे 
अचानक क्यूँ लगा कि 
ये तेरी ही आवाज़ है 
क्या लाज़मी है मेरा 
यूँ मुड़ के देखना 
तेरे एहसास को 
यूँ खुद में समेटना 
या चलते रहना चाहिए 
सब नज़र अंदाज़ करके 
कभी देखे थे जो सपने 
उन्हें आँखों में भरके 
ये इश्क भी दोस्तों 
बहुत मुश्किल है 
हज़ारों ख्वाइशों में दबा 
इक नन्हा सा दिल है 

Sunday 21 September 2014

मंथन

मानवता के पथ पर चल के
कभी कभी डर जाता  है 
भेद न जाएं हृदय को इसके 
इस विचार से घबराता है 

ख़ूब सचेता और समझाया 
कि इस दुनिया की रीत यही है 
रौंध के सबको आगे बढ़ना 
अब मानव की जीत नयी है 

सुनो!!! रहो न तुम विचलित
लोगों के अप्रत्याशित व्यवहारों से 
शब्द-बाण, कुछ व्यंग, कटाक्ष की
लम्बी लम्बी तलवारों से 

बदल सका जो तुझे ज़माना 
तो फिर तुझमें वो बात कहाँ
विषमताओं को अपना माना
तो तुझसा फिर विरवान कहाँ

ऐसे मौके भी आएंगे जब 
खुद को खड़ा अकेले पायेगा 
भ्रम टूटेंगे सब तेरे तब  
तू खुद को ही झुट्लायेगा 

धैर्य न खोना, धर्म न खोना 
हर कठिन घड़ी भी जाएगी 
जीवन की हर मुश्किल तुझे 
और अधिक सबल बनाएगी

जीवन का हर कठिन छण 
मानव उत्थान का अध्याय है 
ईश्वर के  हर संकेत का 
निश्चित ही एक अभिप्राय है 

बढ़ चल निर्भय निडर अडिग
जीवन के इस दुर्लभ पथ पर 
उबर पायेगा हर त्रास  से 
निश्चय ही तू अपने दम पर 

Friday 8 August 2014

प्रेम

कुछ लोग कहते हैं कि
'मुझे' प्रेम का ज्ञान नहीं,
पूछती हूँ उनसे क्या 
वो इससे अनजान नहीं?

मेरे प्रेम की अपनी ही परिभाषा है ,
इसमें हर्ष है , उल्लास है 
और कुछ भी ना पाने की 
एक सकारात्मक आशा है। 

यह प्रेम प्रकृति से है, सृष्टि से है,
सृजन और समाज से है। 
यह प्रेम मानवता से है, साहस से है,
नियति और कल्याण से है। 

ये प्रेम मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है,
मानवता के कुछ अनछुए पन्ने खोलता है। 
इसमें सहजता है, ममता है, सम्मान है 
यह प्रेम एक नारी का अभिमान है ।

यह नीति है, निष्ठा है, धर्म है   
यह प्रेम प्रत्येक मानव का कर्म है। 
यह मैत्री है, संतुलन है, विश्वास है  
यह स्वर्णिम क्षणों का एक सुखद एहसास है।

इस प्रेम में कोई विवशता नहीं 
अपितु एक साहस है, ऊर्जा है । 
ईश्वर का यह अनूठा वरदान ही 
मेरा कर्म है, मेरी पूजा है । 

ये प्रेम,
हर उस माँ के लिए है ,
जिसकी आँखों में एक सैलाब है। 
हर उस पिता के लिए है ,
जो अब बेबस है, लाचार  है । 
हर उस शिशु के लिए है,
जिसका जीवन एक अभिशाप है। 
हर उस मानव के लिए है ,
जिसे एक सच्चे मित्र की तलाश है।  

यह प्रेम मुझे अजनबियों की भी
वेदनाओं की अनुभूति कराता है । 
उनका कष्ट यूँ ही मेरी आँखें
कुछ नम  कर जाता है । 
यह प्रेम श्रृंगार नहीं, कल्पना नहीं
अपितु यथार्थ है । 
यह प्रेम मेरे संपूर्ण जगत
का भावार्थ है । 

क्या हुआ जो यह प्रेम, 
कुछ अलग है ?
इसमें पाने से ज़्यादा,
देने की ललक है । 
इस प्रेम की अपनी ही परिभाषा है ,
इसमें हर्ष है , उल्लास है
और कुछ भी ना पाने की 
एक सकारात्मक आशा है । 

जो लोग कहते हैं कि
मुझे प्रेम का ज्ञान नहीं 
पूछती हूँ उनसे क्या 
वो मुझसे अनजान नहीं?