Saturday 3 May 2014

अंतर्द्वंद

जीवन एक संग्राम है
यहाँ प्रत्येक क्षण एक अंतर्द्वंद है
अंतर्द्वंद!!! स्वयं के विचारों से
परिस्थितियों से, समाज से
यहाँ रुकना विकल्प नही
यहाँ थकना विकल्प नही
बस लड़ते रहना है
बस बढ़ते रहना है
बिना रुके, बिना मुड़े
हर पराजय को स्वीकार करना है
हर विवशता को शक्ति का रूप देना है
हर असफलता को सफलता का अध्याय बनाना है
इस संग्राम का कोई अंत नही
यहाँ अकारण कुछ नही होता
ना कोई किसी के कंधे पर हाथ रखता है
ना मुस्कुरा कर समय व्यर्थ करता है
यहाँ बस क्षय और लाभ का व्यापार है
मानवीय संवेदनायें भी इस व्यापार का हिस्सा हैं
प्रदूषित केवल वातावरण ही नही
अपितु मानव मस्तिष्क भी है
ना जाने ह्म किस मलिनता की ओर जा रहे हैं
यहाँ कुछ भी अकारण नही
यहाँ कुछ भी स्थाई नही
ना ये जीवन और ना ही परिस्थितियाँ
समय बदलता है, विचार बदलते हैं
जो नही बदलता वो है ये 'अंतर्द्वंद'
इसका ना कोई आरंभ है और ना ही अंत
यहाँ रुकना विकल्प नही
यहाँ थकना विकल्प नही
बस लड़ते रहना है
बस बढ़ते रहना है
बिना रुके, बिना मुड़े 

आत्मशक्ति

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

समय नही ये विराम का
समय नही है विश्राम का
जो स्वप्न हैं इतने हृदय में
उठो ! उन्हे साकार करो

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

विचारों में हो तेज इतना
कि कोई ना उनको रोक पाए
ताप हो ऐसा हृदय में
कि सूरज भी अचरज पाए
जो चूक जाते हो लक्ष्य से तो
स्वयं को कदापि ना निराश करो

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

मान और सम्मान तेरा
बस तेरा अधिकार है
स्वामिनी है तू स्वयं की
दास यह संसार है
तोड़ कर सब बेड़ियाँ अब 
तुम पुनर्विचार करो

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

तू है अंबा, तू है दुर्गा
तू ही शक्ति का रूप है
पाँव तो हर छण जलेंगे
जीवन कड़ी सी धूप है
पार सब कठिनाइयाँ कर
तुम स्व-उत्थान करो

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

जन्म तेरा इस धरा पर
निरर्थक, निरुदेश्य नहीं
आरम्भ है तू नव युग का
इस युग का अवशेष नहीं
जान कर अपने गुणों को
इस सृष्टि का कल्याण करो

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

अस्मिता

ये पंक्तियाँ उन तमाम स्त्रियों को समर्पित हैं जो हर छण अपने अस्तित्व को खोजने में अपने आप से जूझ रहीं है


स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

चल रही हूँ निरंतर
थाम कर मंन का समंदर
कुछ देर अब थोड़ा ठहर कर
करना विश्राम चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में थोड़ा विराम चाहती हूँ

पा रहे और खो रहे क्या
जानना ये है ज़रूरी
दौड़ते रहे सदा ही
क्यूँ दौड़ ये अब भी अधूरी
रोक कर थोड़ा स्वयं को
देना यह ज्ञान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में थोड़ा विराम चाहती हूँ

कैसी अदृश्य बेड़ियाँ
जकड़े हुए पैरों को मेरे
भाव कितने ही ह्रदय में
क्यूँ अड़चनें इनको हैं घेरे
लाँघ कर सारी ये अड़चन
छूना आसमान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

मानना अवमानना का
खेल यूँ कब तक चलेगा
नैराश्य में डूबा ये जीवन
क्या यूँ हीं हर पल ढलेगा
प्राप्त करके फिर स्वयं को
देना सम्मान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

कर दिया जीवन समर्पित
एक छोटे से परिवार को
फिर भी क्यूँ पाया उन्ही से
बस उलाहना अपमान को
तोड़ कर सारे ये बंधन
पाना नव आयाम चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

प्रश्न हैं सहस्र मन में
उत्तर मिलें क्या इसी रंण में
प्राप्त कर परमात्मा को
होना अन्तर्ध्यान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ