Tuesday 27 November 2018

मैंने छोड़ दिया

अपने अंतर्मन, स्थितियों में परिवर्तन
से मैंने लड़ना छोड़ दिया
जो पाया उस पर ख़ुद को अर्पण
जो रहा शेष का मंथन छोड़ दिया

अपने अंतर्मन...

चलती रही प्रगतिपथ पर,
तीव्रतम वेग से
हर क्षण जीने को एक मादक संवेग से
पाँवों की कम्पन, श्वासों की टूटन
का मैंने क्रन्दन छोड़ दिया

अपने अंतर्मन...

पावन  मन  से  स्वकर्म  किया
पीड़ा, अपमान का विष भी पिया
अब प्रियजन के आक्षेपों का
यूँ मैंने खण्डन छोड़ दिया

अपने अंतर्मन, स्थितियों में परिवर्तन
से मैंने लड़ना छोड़ दिया

Tuesday 12 June 2018

घाट नही जातीं बेटियाँ


नहीं  नहीं  घाट नहीं जातीं  बेटियाँ 
जाते हैं पुरुष- बाप बेटा भाई भतीजा 
यहाँ तक की दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी
कोई मोह में तो कोई औपचारिकता वश 
परंतु यह कैसे स्वीकारें बेटियाँ?

कसमसातीं बेटियाँ, तिलमिलातीं बेटियाँ 
पिता की अर्थी संग शमशान जाने को;
गिड़गिड़ातीं बेटियाँ,
मुखाग्नि की कामनारत, दाह में
शामिल होने तक को तरसती बेटियाँ

क्योंकि,
क्योंकि घाट नही जातीं बेटियाँ

पिता-पुत्री के संबंधों का सम्मान हुआ  
सशर्त ही सही, किंतु
बेटियों के घाट जाने का प्रावधान हुआ,
अधिकारों की भिक्षा पाकर मुस्कुराती बेटियाँ
कुरीतियों में परिवर्तन से हर्षाती बेटियाँ 
दूर से ही पर कम से कम अब
पिता को देख तो सकतीं थीं बेटियाँ

किन्तु स्त्रियों की राह इतनी सरल कहाँ?

घाट से पहले फिर रोकी गयीं बेटियाँ
अपनी इस धृष्टता पर टोकीं गयीं बेटियाँ
'यहाँ तक आने का दुस्साहस तो कर
लिया; अब आगे एक क़दम ना बढ़ाना'
आधुनिक समाज के इन युवाओं पर
आश्चर्यचकित बेटियाँ, निःशब्द
भीगे चक्षुओं से देखती रहीं बेटियाँ

क्योंकि,
क्योंकि घाट नही जातीं बेटियाँ

तभी किसी देवपुरुष ने दूर बने पुल से
पिता को देख सकने की युक्ति जताई
वो सड़क वो पुल किसी के बाप का नहीं
ये वास्तविकता सबको याद दिलाई

आशा की किरणों को कंधों पे उठाये
पुल की तरफ़ भागती बेटियाँ
अग्नि में समर्पित पिता को निहारती बेटियाँ
विछोह व परंपराओं के बीच उलझती बेटियाँ
अनेकोनेक प्रश्नों का उत्तर खोजती बेटियाँ

पर तभी,
मुख से लकड़ियों को दूर फ़ेंकते पिता ने
जैसे स्वयं अंतिम दर्शन देते हुए कहा
''बिटिया! तुम्हे एक नज़र देखने को
बहुत तड़प रहा था मैं भी; जानता हूँ
ये समाज तुम्हे आगे भी क़दम-२ पर रोकेगा
किन्तु डरना नहीं , हारना नहीं , साहस रखना
क्यूँकि सशरीर न सही;
पर मैं आत्मा हमेशा तुम्हारे साथ हूँ ''

बेटों जैसे पाली जातीं, बेटे का हर फ़र्ज़ निभातीं
फिर भी बेटे की अनुपस्थिति में,
वो बन के रह जातीं हैं तो सिर्फ बेटियाँ
उस दिन दक़ियानूसी विचारधारा  पर
प्रेम की एक छोटी सी जीत हुई थी

क्योंकि, उस दिन घाट गयीं थीं बेटियाँ
क्योंकि, उस दिन घाट गयीं थीं बेटियाँ 

Wednesday 7 February 2018

वो आख़िरी मुलाक़ात

कुछ अप्रत्याशित सी थी हमारी
'वो आख़िरी मुलाक़ात'
कितना दिव्य था आपका वह स्वरूप
मुख पर विजय के भाव, गंभीर भंगिमा,
वही प्रभावशाली व्यक्तित्व, शांत चेहरा,
चौड़ा माथा, वही बड़ी बड़ी आँखें,
जैसे मुंदी हुई किसी सुंदर स्वप्न में खोयी हों
चारों ओर के कोलाहल से परे उस गहन निद्रा का
रसपान करते आप इतने संतुष्ट लग रहे थे
जैसे वर्षों से ऐसी ही नींद की प्रतीक्षा में हों
आपके आनन्दित  मुख को देख क्षण भर को
मैं भूल ही गयी की अब आप फिर कभी नही उठेंगे
मन करता रहा कि आपको यूं ही निहारती रहूं
नींद नही आती थी ना आपको?
माथे को सहलवा कर, तो कभी तलवों को मलवा कर
टुकड़ो मे मिलने वाली उस नींद से ऊब चुके थे आप
सन्नाटा भी बहुत अधिक व्यथित करता था आपको
पर उस दिन कितनी भीड़ थी आपके चारों तरफ
हर कोई माल्यार्पण को, चरण स्पर्श करने को ,
आपकी एक झलक पाने को तत्पर था
परंतु सबसे विमुख हो आप जैसे अपना
निर्णय ले चुके थे, जैसे सबसे पूंछ रहे थे
कि कहां थे तुम सब जब मैं हर रोज़
कुछ और अकेला हो रहा था,
कहां थे जब मैं ज़िन्दगी से हर रोज़
लड़ते हुए कुछ और थक रहा था,
एक मज़बूत चट्टान थे आप
वो चट्टान जो बहुतों को आश्रय तो देती है
पर सबसे अधिक आघात भी झेलती है
और उसका संरक्षण सिर्फ अवनि या आकाश,
ही कर पाते हैं, फूलों से सजे आप किसी
चक्रवर्ती सम्राट से दिख रहे थे और जब यहां
लोग छोटी-बड़ी बातों का रोना लिए बैठे थे
आप हर्षित से अपने स्वर्ण रथ पर सवार
तेज़ी से स्वर्गलोक की ओर बढ़ रहे थे
वास्तव मे, बहुत अप्रत्याशित ही थी
हमारी 'वो आख़िरी मुलाक़ात'