Wednesday 29 March 2017

माँ तुम होती हो तो

माँ तुम होती हो तो नींद अच्छी आती है
माथे की शिकन ख़ुद-ब-ख़ुद कम हो जातीं है
जब तुम चाय का प्याला हाथ में लिए मुझे जगाती हो
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म,
तुम्हारी ममता में खो जाती है
जब तुम ख़ुद बिना विराम के मुझे विश्राम को कहती हो
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म
मेरी विवशताओं में खो जाती है
जब तुम ख़ुद को अनदेखा कर मेरी चिन्ता जताती हो
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म,
मेरी विफलताओं में खो जाती है
जब तुम बिना कुछ कहे दिन भर अकेले जूझती हो
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म
मेरी दुर्बलताओं में खो जाती है
जब तुम कुछ कहते कहते विचलित हो जाती हो
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म
मेरी असहायता में खो जाती है
जब तुम्हारी बातों में वो दर्द, वो थकान झलकती है
तो शर्म तो थोड़ी आती है, पर फिर वो शर्म
इस खोखली सामाजिकता में खो जाती है
तुम अपनी सहनशीलता का बखान नहीं करती
और ना ही अपनी उपलब्धियों के किस्से सुनातीं
तुम तो बस चुपचाप अपना धर्म निभाती हो
बिना किसी आशा के, बिना किसी आश्वासन के
कदाचित ही तुम्हारी नींद कभी पूरी होती है
फिर भी, तुम होती हो तो नींद अच्छी आती है
माथे की शिकन ख़ुद-ब-ख़ुद कम हो जातीं है
माँ तुम होती हो तो...

Thursday 23 March 2017

देखो ज़रा देखो

देखो भाई देखो
ज़रा इनको भी देखो
हाथ जोड़े खड़े हैं 
खीस निपोरे खड़े हैं 
पैर पकड़े खड़े हैं 
उलटे लटके खड़े हैं 

स्वार्थ में लिप्त खड़े हैं 
परमार्थ से तृप्त खड़े हैं 
लाभ दिखता जहाँ भी 
सेवा में विक्षिप्त खड़े हैं

सामाजिकता से रोगग्रस्त हैं 
सबसे बनाये रखने में व्यस्त हैं 
सच कहने - सुनने से डरते हैं
हर बात पर हामी भरते हैं

सुख में हिस्सेदार बने हैं 
दुःख में सबसे दूर खड़े हैं 
बहानों की लंबी सूची लिए 
देखो तो कैसे हितैषी बने हैं 

विचलित ये मन, हौले से कहे है
ये इंसान  नहीं हैं, बस मुखौटे चढ़े हैं 

देखो भाई देखो
कोई इनको भी देखो 
ख़ुद को भूले खड़े हैं 
रीढ़ के बिन पड़े हैं

हाथ जोड़े खड़े हैं 
खीस निपोरे खड़े हैं 
पैर पकड़े खड़े हैं 
उलटे लटके खड़े हैं

देखो भाई देखो...