जब दीवार पे पैर टिकाये खड़े,
घंटों बीत जाते थे
नहीं नहीं, बैठूंगा नहीं कहते- कहते भी
तुम एक-आध घंटे और रुक ही जाते थे
जब बातों- बातों में दोपहर से शाम
और शाम से रात हो जाती थी
जब पहली से आख़िरी बस का सफ़र
तुम घड़ी पे नज़र गड़ाए यूँ ही
तय कर जाते थे, और फ़िर भी अंत में
ऑटो पकड़ कर ही घर जाते थे
तब कई बार के अलविदा के बाद भी
शेष रह जातीं थीं ना जाने कितनी
अटपटी सी चटपटी सी बातें
तुममे मुझको, मुझमे तुमको
ज़िंदा रखतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें
जब परिस्थितियों की जटिलता
माहौल में भारीपन सा भर देती थी
जब अपरिहार्य मौन की चादर हमे
स्वयं में पूरी तरह ढक लेती थी
जब मैं तुम्हे चुपके से देखती पर
तुम नज़रें कहीं दूर गड़ाए रहते थे
जब बहुत कुछ होता था कहने को
पर शब्द चुपचाप ही आँखों से
टपक जाया करते थे,
जब अर्थपूर्ण सब गूढ़ बातें
बेमानी सी लगतीं थीं,
तब उस सन्नाटे को चीर हमे
ठहठहाने को मजबूर कर देतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें
तुममे मुझको, मुझमे तुमको
ज़िंदा रखतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें
घंटों बीत जाते थे
नहीं नहीं, बैठूंगा नहीं कहते- कहते भी
तुम एक-आध घंटे और रुक ही जाते थे
जब बातों- बातों में दोपहर से शाम
और शाम से रात हो जाती थी
जब पहली से आख़िरी बस का सफ़र
तुम घड़ी पे नज़र गड़ाए यूँ ही
तय कर जाते थे, और फ़िर भी अंत में
ऑटो पकड़ कर ही घर जाते थे
तब कई बार के अलविदा के बाद भी
शेष रह जातीं थीं ना जाने कितनी
अटपटी सी चटपटी सी बातें
तुममे मुझको, मुझमे तुमको
ज़िंदा रखतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें
जब परिस्थितियों की जटिलता
माहौल में भारीपन सा भर देती थी
जब अपरिहार्य मौन की चादर हमे
स्वयं में पूरी तरह ढक लेती थी
जब मैं तुम्हे चुपके से देखती पर
तुम नज़रें कहीं दूर गड़ाए रहते थे
जब बहुत कुछ होता था कहने को
पर शब्द चुपचाप ही आँखों से
टपक जाया करते थे,
जब अर्थपूर्ण सब गूढ़ बातें
बेमानी सी लगतीं थीं,
तब उस सन्नाटे को चीर हमे
ठहठहाने को मजबूर कर देतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें
तुममे मुझको, मुझमे तुमको
ज़िंदा रखतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें