Friday 8 August 2014

प्रेम

कुछ लोग कहते हैं कि
'मुझे' प्रेम का ज्ञान नहीं,
पूछती हूँ उनसे क्या 
वो इससे अनजान नहीं?

मेरे प्रेम की अपनी ही परिभाषा है ,
इसमें हर्ष है , उल्लास है 
और कुछ भी ना पाने की 
एक सकारात्मक आशा है। 

यह प्रेम प्रकृति से है, सृष्टि से है,
सृजन और समाज से है। 
यह प्रेम मानवता से है, साहस से है,
नियति और कल्याण से है। 

ये प्रेम मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है,
मानवता के कुछ अनछुए पन्ने खोलता है। 
इसमें सहजता है, ममता है, सम्मान है 
यह प्रेम एक नारी का अभिमान है ।

यह नीति है, निष्ठा है, धर्म है   
यह प्रेम प्रत्येक मानव का कर्म है। 
यह मैत्री है, संतुलन है, विश्वास है  
यह स्वर्णिम क्षणों का एक सुखद एहसास है।

इस प्रेम में कोई विवशता नहीं 
अपितु एक साहस है, ऊर्जा है । 
ईश्वर का यह अनूठा वरदान ही 
मेरा कर्म है, मेरी पूजा है । 

ये प्रेम,
हर उस माँ के लिए है ,
जिसकी आँखों में एक सैलाब है। 
हर उस पिता के लिए है ,
जो अब बेबस है, लाचार  है । 
हर उस शिशु के लिए है,
जिसका जीवन एक अभिशाप है। 
हर उस मानव के लिए है ,
जिसे एक सच्चे मित्र की तलाश है।  

यह प्रेम मुझे अजनबियों की भी
वेदनाओं की अनुभूति कराता है । 
उनका कष्ट यूँ ही मेरी आँखें
कुछ नम  कर जाता है । 
यह प्रेम श्रृंगार नहीं, कल्पना नहीं
अपितु यथार्थ है । 
यह प्रेम मेरे संपूर्ण जगत
का भावार्थ है । 

क्या हुआ जो यह प्रेम, 
कुछ अलग है ?
इसमें पाने से ज़्यादा,
देने की ललक है । 
इस प्रेम की अपनी ही परिभाषा है ,
इसमें हर्ष है , उल्लास है
और कुछ भी ना पाने की 
एक सकारात्मक आशा है । 

जो लोग कहते हैं कि
मुझे प्रेम का ज्ञान नहीं 
पूछती हूँ उनसे क्या 
वो मुझसे अनजान नहीं?