नहीं नहीं घाट नहीं जातीं बेटियाँ
जाते हैं पुरुष- बाप बेटा भाई भतीजा
यहाँ तक की दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी
कोई मोह में तो कोई औपचारिकता वश
कोई मोह में तो कोई औपचारिकता वश
परंतु यह कैसे स्वीकारें बेटियाँ?
कसमसातीं बेटियाँ, तिलमिलातीं बेटियाँ
पिता की अर्थी संग शमशान जाने को;
गिड़गिड़ातीं बेटियाँ,
मुखाग्नि की कामनारत, दाह में
शामिल होने तक को तरसती बेटियाँ
गिड़गिड़ातीं बेटियाँ,
मुखाग्नि की कामनारत, दाह में
शामिल होने तक को तरसती बेटियाँ
क्योंकि,
क्योंकि घाट नही जातीं बेटियाँ
क्योंकि घाट नही जातीं बेटियाँ
पिता-पुत्री के संबंधों का सम्मान हुआ
सशर्त ही सही, किंतु
बेटियों के घाट जाने का प्रावधान हुआ,
अधिकारों की भिक्षा पाकर मुस्कुराती बेटियाँ
बेटियों के घाट जाने का प्रावधान हुआ,
अधिकारों की भिक्षा पाकर मुस्कुराती बेटियाँ
कुरीतियों में परिवर्तन से हर्षाती बेटियाँ
दूर से ही पर कम से कम अब
पिता को देख तो सकतीं थीं बेटियाँ
पिता को देख तो सकतीं थीं बेटियाँ
किन्तु स्त्रियों की राह इतनी सरल कहाँ?
घाट से पहले फिर रोकी गयीं बेटियाँ
अपनी इस धृष्टता पर टोकीं गयीं बेटियाँ
'यहाँ तक आने का दुस्साहस तो कर
लिया; अब आगे एक क़दम ना बढ़ाना'
आधुनिक समाज के इन युवाओं पर
आश्चर्यचकित बेटियाँ, निःशब्द
भीगे चक्षुओं से देखती रहीं बेटियाँ
क्योंकि,
क्योंकि घाट नही जातीं बेटियाँ
तभी किसी देवपुरुष ने दूर बने पुल से
पिता को देख सकने की युक्ति जताई
वो सड़क वो पुल किसी के बाप का नहीं
ये वास्तविकता सबको याद दिलाई
आशा की किरणों को कंधों पे उठाये
पुल की तरफ़ भागती बेटियाँ
अग्नि में समर्पित पिता को निहारती बेटियाँ
विछोह व परंपराओं के बीच उलझती बेटियाँ
अनेकोनेक प्रश्नों का उत्तर खोजती बेटियाँ
पर तभी,
मुख से लकड़ियों को दूर फ़ेंकते पिता ने
जैसे स्वयं अंतिम दर्शन देते हुए कहा
''बिटिया! तुम्हे एक नज़र देखने को
बहुत तड़प रहा था मैं भी; जानता हूँ
ये समाज तुम्हे आगे भी क़दम-२ पर रोकेगा
किन्तु डरना नहीं , हारना नहीं , साहस रखना
क्यूँकि सशरीर न सही;
पर मैं आत्मा हमेशा तुम्हारे साथ हूँ ''
बेटों जैसे पाली जातीं, बेटे का हर फ़र्ज़ निभातीं
फिर भी बेटे की अनुपस्थिति में,
वो बन के रह जातीं हैं तो सिर्फ बेटियाँ
उस दिन दक़ियानूसी विचारधारा पर
प्रेम की एक छोटी सी जीत हुई थी
क्योंकि, उस दिन घाट गयीं थीं बेटियाँ
क्योंकि, उस दिन घाट गयीं थीं बेटियाँ
अपनी इस धृष्टता पर टोकीं गयीं बेटियाँ
'यहाँ तक आने का दुस्साहस तो कर
लिया; अब आगे एक क़दम ना बढ़ाना'
आधुनिक समाज के इन युवाओं पर
आश्चर्यचकित बेटियाँ, निःशब्द
भीगे चक्षुओं से देखती रहीं बेटियाँ
क्योंकि,
क्योंकि घाट नही जातीं बेटियाँ
तभी किसी देवपुरुष ने दूर बने पुल से
पिता को देख सकने की युक्ति जताई
वो सड़क वो पुल किसी के बाप का नहीं
ये वास्तविकता सबको याद दिलाई
आशा की किरणों को कंधों पे उठाये
पुल की तरफ़ भागती बेटियाँ
अग्नि में समर्पित पिता को निहारती बेटियाँ
विछोह व परंपराओं के बीच उलझती बेटियाँ
अनेकोनेक प्रश्नों का उत्तर खोजती बेटियाँ
पर तभी,
मुख से लकड़ियों को दूर फ़ेंकते पिता ने
जैसे स्वयं अंतिम दर्शन देते हुए कहा
''बिटिया! तुम्हे एक नज़र देखने को
बहुत तड़प रहा था मैं भी; जानता हूँ
ये समाज तुम्हे आगे भी क़दम-२ पर रोकेगा
किन्तु डरना नहीं , हारना नहीं , साहस रखना
क्यूँकि सशरीर न सही;
पर मैं आत्मा हमेशा तुम्हारे साथ हूँ ''
बेटों जैसे पाली जातीं, बेटे का हर फ़र्ज़ निभातीं
फिर भी बेटे की अनुपस्थिति में,
वो बन के रह जातीं हैं तो सिर्फ बेटियाँ
उस दिन दक़ियानूसी विचारधारा पर
प्रेम की एक छोटी सी जीत हुई थी
क्योंकि, उस दिन घाट गयीं थीं बेटियाँ
क्योंकि, उस दिन घाट गयीं थीं बेटियाँ