Wednesday 29 July 2015

बस ऐसे ही

पल पल बदलते समीकरण 
क्षण क्षण बदलते समीकरण 
लाभ व हानि की तुला पर
गिरते सम्हलते  समीकरण 

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मेरी छाँव मे तुझे सुकून मिले न मिले
तेरी पनाह मे मुझे जन्नत नसीब होती है
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बस में कहाँ मेरे शान-ओ-शौक़त दे पाना तुझको
पर कोशिश है की ये बचपन मैं प्यार से भर दूँ
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कब बदलना चाहा था मैंने ऐ ज़िन्दगी
इक तूने ही तो मजबूर कर दिया
जो क़द्र कर लेती ज़रा सी पहले ही
तो फ़िर आज यूँ शिकायतें न होतीं
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चूमेगी क़ामयाबी जब क़दम तेरे,
तो ज़माना जलेगा भी और बातें भी होंगी
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थाम कर तूने ये उँगलियाँ
बड़ी ख़ूबसूरती से मुझे
फिर ज़िन्दा कर दिया
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कुछ आज़ाद लम्हे क्या मांग लिए,
तुझसे ऐ ज़िन्दगी
तूने मुझे तुझसे ही आज़ाद कर दिया
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एक अनचाहा सन्नाटा
एक अनजानी दीवार
ना जाने कितने ढूंढ रहे
इसमें जीवन का सार
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ये चार दीवारें तो बस
इंसान की क़ैद को हैं
वरना आवारा परिंदे तो
खुले आसमां में उड़ा करते हैं
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कुछ पुराने कागज़ों को खंगाला तो
इक अलग ही शख़्स से मुलाक़ात हुई
कुछ पल बिताये जो साथ तो जाना
कि बाक़ी कुछ भी तो नहीं बदला
बस हम ही थोड़ा बदल गए
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वो झुर्रियाँ कुछ उम्र से
पहले दिखाई देतीं थीं
आँखें भी उसके चेहरे पे
धंसी, पथरायी रहतीं थी
देखा जो बरसों बाद उसने
ख़ुद  को, आईने में ग़ौर से
वो शक्ल उसे कुछ पहचानी
मगर धुंधलाई दिखती थी
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शौक़ीन तो हम भी हुआ करते थे मगर
उम्र बीती बस दाल रोटी जुटाने में
ज़िम्मेदारियाँ तो ख़ैर कुछ कम न हुईं
अब कहते हैं अलविदा इस ज़माने से
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औक़ात कहाँ मेरी शान-ओ-शौक़त दे पाने की तुझको
इतनी कोशिश है की तेरा बचपन मैं प्यार से भर दूँ
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आज कल हिचकियाँ आने पे भी ताज्जुब होता है
कि हमे याद करने वाले भी दुनिया में बाक़ी हैं
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नींद तो सड़क किनारे चटखती धूप में भी आ जाती है
मख़मली गद्दों पे तो लोग सिर्फ करवटें बदला करते हैं



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