Friday 12 December 2014

प्रकृति

सुना है कि!!!
जब दर्द आँखों से छलकता है, तो कविता बनती है
इन शब्दों की हर कड़ी, हम-आप से कुछ कहती है
जब रात की ख़ामोशी दिन के कोलाहल से, ज़्यादा सुख देती है
जब पत्तों की सरसराहट इन कानों में, चुपचाप से कुछ कहती है
जब झींगुरों की आवाज़ किसी मधुर संगीत सी, मोहक लगती है
जब जुगनुओं की चमक तमाम रौशनी को, मद्धम करती है
जब मिट्टी की भीनी-२ ख़ुश्बू, किसी इत्र सी सुगन्धित लगती है
जब बादलों की गड़गड़ाहट मन मे एक, उमंग सी भर देती है
जब ओस की नन्ही-नन्ही बूँदें इस तन-मन को, भिगो देतीं हैं
जब रंग-बिरंगी कलियाँ जीवन के तम को, धो देतीं हैं
जब कोयल अपने साथ कुहुकने को, मजबूर कर देती है
और जब प्रकृति वात्सल्य से हमें, अपनी गोद में भर लेती है
तब ज़िन्दगी बस इन्ही कुछ लम्हों में, सिमट जाती है
वास्तविकता ये है कि, तब भी एक कविता बनती है
और वो कविता लिखी, पढ़ी, कही या सुनी नहीं जाती
बल्कि हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में जी जाती है

Tuesday 11 November 2014

चिरैय्या

रंग बिरंगे पंखों वाली
फुदक-२ कर चलने वाली
ओ नन्ही प्यारी सी चिड़िया
तू मेरे अंगना कब आएगी?

सुबह शाम मैं नयन गड़ाए
उस विस्तृत नीले अम्बर पर
तकती हूँ निज आस लगाए
तू एक झलक कब दिखलाएगी?

ओ नन्ही प्यारी सी चिड़िया
तू मेरे अंगना कब आएगी?

नही मैं उन इन्सानों में से
डाल के कुछ दाने धरती पर
करते हैं क़ैद पिंजरे में तुझको
नित निज मन बहलाने को

मेरा उर तो आनंदित होता
तेरी मीठी सी बोली सुनकर
तेरा चलना वो फुदक-२ कर
तेरा उड़ना वो निर्भय होकर

है विश्वास मुझे इक दिन तू 
तोड़ के पिंजरा उड़ जाएगी
ओ नन्ही प्यारी सी चिड़िया
तू मेरे अंगना कब आएगी?

तेरी निश्छलता और निर्भयता
मुझको कुछ प्रेरित कर जाती
कहती है एक झलक तेरी के
शायद मैं तुझ सी बन पाती

यद्यपि  यह  सम्भव  नही
फिर भी इस चित्त की शांति तो
है; तुझसी चंचलता,  निर्भयता
स्वछन्दता और गति में ही

बस माँगूं मैं तुझसे इतना
क्या मुझको साथ उड़ा पाएगी?
ओ नन्ही प्यारी सी चिड़िया
तू मेरे अंगना कब आएगी?

ओ सखी! जाने अन्जाने सही
पर हममें एक समानता है
हम दोनो को क़ैद करने यहाँ
अनगिनत शिकारियों का ताँता है

शायद इसलिए, ना चाह कर भी
मैं तुझमें खुद को देखती हूँ
बन्द आँखों से उस विस्तृत
विशाल गगन को भेदती हूँ

और शायद इसलिए ही
सुबह शाम मैं नयन गड़ाए
उस विस्तृत नीले अम्बर पर
तकती हूँ निज आस लगाए
तू एक झलक कब दिखलाएगी?

ओ नन्ही प्यारी सी चिड़िया
तू मेरे अंगना कब आएगी?

Saturday 27 September 2014

एहसास

ना जाने क्यूँ  
ये ज़िन्दगी  उदास है 
आखिर इस दिल को 
किसकी तलाश है 
चलते चलते इन 
टेढ़े मेढ़े रास्तों पे 
अचानक क्यूँ लगा कि 
ये तेरी ही आवाज़ है 
क्या लाज़मी है मेरा 
यूँ मुड़ के देखना 
तेरे एहसास को 
यूँ खुद में समेटना 
या चलते रहना चाहिए 
सब नज़र अंदाज़ करके 
कभी देखे थे जो सपने 
उन्हें आँखों में भरके 
ये इश्क भी दोस्तों 
बहुत मुश्किल है 
हज़ारों ख्वाइशों में दबा 
इक नन्हा सा दिल है 

Sunday 21 September 2014

मंथन

मानवता के पथ पर चल के
कभी कभी डर जाता  है 
भेद न जाएं हृदय को इसके 
इस विचार से घबराता है 

ख़ूब सचेता और समझाया 
कि इस दुनिया की रीत यही है 
रौंध के सबको आगे बढ़ना 
अब मानव की जीत नयी है 

सुनो!!! रहो न तुम विचलित
लोगों के अप्रत्याशित व्यवहारों से 
शब्द-बाण, कुछ व्यंग, कटाक्ष की
लम्बी लम्बी तलवारों से 

बदल सका जो तुझे ज़माना 
तो फिर तुझमें वो बात कहाँ
विषमताओं को अपना माना
तो तुझसा फिर विरवान कहाँ

ऐसे मौके भी आएंगे जब 
खुद को खड़ा अकेले पायेगा 
भ्रम टूटेंगे सब तेरे तब  
तू खुद को ही झुट्लायेगा 

धैर्य न खोना, धर्म न खोना 
हर कठिन घड़ी भी जाएगी 
जीवन की हर मुश्किल तुझे 
और अधिक सबल बनाएगी

जीवन का हर कठिन छण 
मानव उत्थान का अध्याय है 
ईश्वर के  हर संकेत का 
निश्चित ही एक अभिप्राय है 

बढ़ चल निर्भय निडर अडिग
जीवन के इस दुर्लभ पथ पर 
उबर पायेगा हर त्रास  से 
निश्चय ही तू अपने दम पर 

Friday 8 August 2014

प्रेम

कुछ लोग कहते हैं कि
'मुझे' प्रेम का ज्ञान नहीं,
पूछती हूँ उनसे क्या 
वो इससे अनजान नहीं?

मेरे प्रेम की अपनी ही परिभाषा है ,
इसमें हर्ष है , उल्लास है 
और कुछ भी ना पाने की 
एक सकारात्मक आशा है। 

यह प्रेम प्रकृति से है, सृष्टि से है,
सृजन और समाज से है। 
यह प्रेम मानवता से है, साहस से है,
नियति और कल्याण से है। 

ये प्रेम मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है,
मानवता के कुछ अनछुए पन्ने खोलता है। 
इसमें सहजता है, ममता है, सम्मान है 
यह प्रेम एक नारी का अभिमान है ।

यह नीति है, निष्ठा है, धर्म है   
यह प्रेम प्रत्येक मानव का कर्म है। 
यह मैत्री है, संतुलन है, विश्वास है  
यह स्वर्णिम क्षणों का एक सुखद एहसास है।

इस प्रेम में कोई विवशता नहीं 
अपितु एक साहस है, ऊर्जा है । 
ईश्वर का यह अनूठा वरदान ही 
मेरा कर्म है, मेरी पूजा है । 

ये प्रेम,
हर उस माँ के लिए है ,
जिसकी आँखों में एक सैलाब है। 
हर उस पिता के लिए है ,
जो अब बेबस है, लाचार  है । 
हर उस शिशु के लिए है,
जिसका जीवन एक अभिशाप है। 
हर उस मानव के लिए है ,
जिसे एक सच्चे मित्र की तलाश है।  

यह प्रेम मुझे अजनबियों की भी
वेदनाओं की अनुभूति कराता है । 
उनका कष्ट यूँ ही मेरी आँखें
कुछ नम  कर जाता है । 
यह प्रेम श्रृंगार नहीं, कल्पना नहीं
अपितु यथार्थ है । 
यह प्रेम मेरे संपूर्ण जगत
का भावार्थ है । 

क्या हुआ जो यह प्रेम, 
कुछ अलग है ?
इसमें पाने से ज़्यादा,
देने की ललक है । 
इस प्रेम की अपनी ही परिभाषा है ,
इसमें हर्ष है , उल्लास है
और कुछ भी ना पाने की 
एक सकारात्मक आशा है । 

जो लोग कहते हैं कि
मुझे प्रेम का ज्ञान नहीं 
पूछती हूँ उनसे क्या 
वो मुझसे अनजान नहीं?

Thursday 10 July 2014

पिता

यह 'पिता' शब्द कुछ खास है,
इसमें भावनाओ की एक अलग ही मिठास है|

जो बिटिया की नयी पेन्सिल के लिए
भरी बारिश में चला जाता है,
जो गुड़िया खिलौने ला लाकर
अपनी जेबें खाली करवाता है,
जो बच्चों की पसंद नापसंद के कारण
बाज़ार के दसियों चक्कर लगाता है,
जो दिन भर के संघर्ष के बाद भी
घर खाली हाथ नही आता है,
और जो हर रात एक अतिरिक्त घंटा
आने वाले खर्चों की गणित में बिताता है,
किंतु फिर भी अपनी आमदनी 
अपने बच्चो से छिपता है |वो हैं पिता 

यह 'पिता' शब्द कुछ खास है,
इसमें भावनाओ की एक अलग ही मिठास है|

जो अपनी भावनाओ को आँसुओं से नही
बस एक सौम्य मुस्कान से दिखाता है,
जो अपनी आँखों के पानी का कारण 
हमेशा धूल का एक कण बताता है,
जो खराब तबीयत को छुपाने के लिए
अक्सर फोन पे नही आता है,
और अपनी भर्रायी हुई आवाज़ को
कई बार खाँसी में छुपाता है,
जो हर त्योहार पर 
चुपचाप आँसू बहाता है 
किंतु सामने पड़ने पर 
पहले माँ को चुप कराता है |वो हैं पिता 

यह 'पिता' शब्द कुछ खास है,
इसमें भावनाओ की एक अलग ही मिठास है|

जो अपनी इच्छाओं को त्याग कर
पूर्ण निस्वार्थ भाव से 
परिवार का दायित्व उठाता है,
जो संतान के सुनहरे भविष्य के लिए
अपना सारा जीवन बिताता है,
जो आवश्यकता पड़ने पर
इस समाज से भी लड़ जाता है,
और प्रत्येक विषम परिस्थिति में
चट्टान जैसे डॅट जाता है |वो हैं पिता

यह 'पिता' शब्द कुछ खास है,
इसमें भावनाओ की एक अलग ही मिठास है|

जो अपनी बेटियों को भी 
बेटों जैसा बनाता है,
जो उन्हे इस समाज की
विषमताओं से अवगत कराता है,
जो उनको अपना जीवन 
सर उठा के जीना सिखाता है,
फिर भी उनकी असुरक्षा के भय से
रातों को सो नही पाता है |वो हैं पिता

यह 'पिता' शब्द कुछ खास है,
इसमें भावनाओ की एक अलग ही मिठास है|

जो बीमार शरीर में भी खुद खड़े होकर
बिटिया का मंडप लगवाता है,
जो सारे इंतज़ामों को स्‍वयं
जा जाकर सम्हालता है,
जो बेटी की विदाई में पीछे पीछे
काफी दूर तक जाता है,
किन्तु वापस लौटते हुए उससे
आँखें नही मिलाता है |वो हैं पिता

यह 'पिता' शब्द कुछ खास है,
इसमें भावनाओ की एक अलग ही मिठास है|

वैसे माँ तो अतुलनीय है,
उसका अद्भुत प्रेम तो
सुबह की चाय से लेकर
दाल-रोटी में अतिरिक्त घी
और सर पे तेल जैसी 
हर चीज़ में दिख जाता है,
लेकिन पिता? पिता तो अपनी
बाह्य कठोरता में ही शोभनीय हैं,
उनका प्रेम तो बस कंधे पे एक हल्का सा हाथ
या सोते में चश्मा निकालने से ही झलक जाता है

इसीलिए! यह 'पिता' शब्द बहुत ही खास है,
इसमें भावनाओ की एक अलग ही मिठास है|

Wednesday 9 July 2014

मातृत्व

मेरे लल्ला मेरे सोना
हम सब का तुम प्रिय खिलौना
सौम्य सलोना तेरा चेहरा 
करता है इस प्रेम को गहरा
जब से तुम आए जीवन में
बिखरे कितने रंग हैं मन में
तुझसे हँसना तुझसे रोना
लगता है ये स्वप्न सलोना
तेरी यह भोली मुस्कान
लाती है नित नव अरमांन
देर रात को उठ कर तुमने
जब दी एक प्यारी मुस्कान
मानो इस मृत शरीर में 
तुमने फूँक दिए हो प्राण
भरा तेरी किलकरियों से
जब मेरा सूखा आँगन
लगा झूम के इस प्यासे मंन में
फिर से आया सावन
जो प्रेम, मोह, ममता आई है
सब कुछ तुमसे ही पाई है
प्यारे लल्ला भोले लल्ला
तुममे बस्ते मेरे प्राण
ईश्वर रूप बसा है तुममे 
तुम हो मेरे कृष्ण समान
खूब फलो तुम, खूब बढ़ो तुम
बस करना कुछ ऐसा काम
इस धरती से उस अंबर तक
गूँजे एक तेरा ही नाम
ढेर प्रेम आशीष मोह से
देती हूँ इतना वरदान
कुश कुशाग्र कैवल्य प्रियांश तुम
चमको बन मानस महान

Saturday 3 May 2014

अंतर्द्वंद

जीवन एक संग्राम है
यहाँ प्रत्येक क्षण एक अंतर्द्वंद है
अंतर्द्वंद!!! स्वयं के विचारों से
परिस्थितियों से, समाज से
यहाँ रुकना विकल्प नही
यहाँ थकना विकल्प नही
बस लड़ते रहना है
बस बढ़ते रहना है
बिना रुके, बिना मुड़े
हर पराजय को स्वीकार करना है
हर विवशता को शक्ति का रूप देना है
हर असफलता को सफलता का अध्याय बनाना है
इस संग्राम का कोई अंत नही
यहाँ अकारण कुछ नही होता
ना कोई किसी के कंधे पर हाथ रखता है
ना मुस्कुरा कर समय व्यर्थ करता है
यहाँ बस क्षय और लाभ का व्यापार है
मानवीय संवेदनायें भी इस व्यापार का हिस्सा हैं
प्रदूषित केवल वातावरण ही नही
अपितु मानव मस्तिष्क भी है
ना जाने ह्म किस मलिनता की ओर जा रहे हैं
यहाँ कुछ भी अकारण नही
यहाँ कुछ भी स्थाई नही
ना ये जीवन और ना ही परिस्थितियाँ
समय बदलता है, विचार बदलते हैं
जो नही बदलता वो है ये 'अंतर्द्वंद'
इसका ना कोई आरंभ है और ना ही अंत
यहाँ रुकना विकल्प नही
यहाँ थकना विकल्प नही
बस लड़ते रहना है
बस बढ़ते रहना है
बिना रुके, बिना मुड़े 

आत्मशक्ति

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

समय नही ये विराम का
समय नही है विश्राम का
जो स्वप्न हैं इतने हृदय में
उठो ! उन्हे साकार करो

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

विचारों में हो तेज इतना
कि कोई ना उनको रोक पाए
ताप हो ऐसा हृदय में
कि सूरज भी अचरज पाए
जो चूक जाते हो लक्ष्य से तो
स्वयं को कदापि ना निराश करो

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

मान और सम्मान तेरा
बस तेरा अधिकार है
स्वामिनी है तू स्वयं की
दास यह संसार है
तोड़ कर सब बेड़ियाँ अब 
तुम पुनर्विचार करो

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

तू है अंबा, तू है दुर्गा
तू ही शक्ति का रूप है
पाँव तो हर छण जलेंगे
जीवन कड़ी सी धूप है
पार सब कठिनाइयाँ कर
तुम स्व-उत्थान करो

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

जन्म तेरा इस धरा पर
निरर्थक, निरुदेश्य नहीं
आरम्भ है तू नव युग का
इस युग का अवशेष नहीं
जान कर अपने गुणों को
इस सृष्टि का कल्याण करो

आत्मशक्ति की पहचान करो
हर लक्ष्य हेतु पूर्ण प्रयास करो

अस्मिता

ये पंक्तियाँ उन तमाम स्त्रियों को समर्पित हैं जो हर छण अपने अस्तित्व को खोजने में अपने आप से जूझ रहीं है


स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

चल रही हूँ निरंतर
थाम कर मंन का समंदर
कुछ देर अब थोड़ा ठहर कर
करना विश्राम चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में थोड़ा विराम चाहती हूँ

पा रहे और खो रहे क्या
जानना ये है ज़रूरी
दौड़ते रहे सदा ही
क्यूँ दौड़ ये अब भी अधूरी
रोक कर थोड़ा स्वयं को
देना यह ज्ञान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में थोड़ा विराम चाहती हूँ

कैसी अदृश्य बेड़ियाँ
जकड़े हुए पैरों को मेरे
भाव कितने ही ह्रदय में
क्यूँ अड़चनें इनको हैं घेरे
लाँघ कर सारी ये अड़चन
छूना आसमान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

मानना अवमानना का
खेल यूँ कब तक चलेगा
नैराश्य में डूबा ये जीवन
क्या यूँ हीं हर पल ढलेगा
प्राप्त करके फिर स्वयं को
देना सम्मान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

कर दिया जीवन समर्पित
एक छोटे से परिवार को
फिर भी क्यूँ पाया उन्ही से
बस उलाहना अपमान को
तोड़ कर सारे ये बंधन
पाना नव आयाम चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

प्रश्न हैं सहस्र मन में
उत्तर मिलें क्या इसी रंण में
प्राप्त कर परमात्मा को
होना अन्तर्ध्यान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ