Wednesday 7 February 2018

वो आख़िरी मुलाक़ात

कुछ अप्रत्याशित सी थी हमारी
'वो आख़िरी मुलाक़ात'
कितना दिव्य था आपका वह स्वरूप
मुख पर विजय के भाव, गंभीर भंगिमा,
वही प्रभावशाली व्यक्तित्व, शांत चेहरा,
चौड़ा माथा, वही बड़ी बड़ी आँखें,
जैसे मुंदी हुई किसी सुंदर स्वप्न में खोयी हों
चारों ओर के कोलाहल से परे उस गहन निद्रा का
रसपान करते आप इतने संतुष्ट लग रहे थे
जैसे वर्षों से ऐसी ही नींद की प्रतीक्षा में हों
आपके आनन्दित  मुख को देख क्षण भर को
मैं भूल ही गयी की अब आप फिर कभी नही उठेंगे
मन करता रहा कि आपको यूं ही निहारती रहूं
नींद नही आती थी ना आपको?
माथे को सहलवा कर, तो कभी तलवों को मलवा कर
टुकड़ो मे मिलने वाली उस नींद से ऊब चुके थे आप
सन्नाटा भी बहुत अधिक व्यथित करता था आपको
पर उस दिन कितनी भीड़ थी आपके चारों तरफ
हर कोई माल्यार्पण को, चरण स्पर्श करने को ,
आपकी एक झलक पाने को तत्पर था
परंतु सबसे विमुख हो आप जैसे अपना
निर्णय ले चुके थे, जैसे सबसे पूंछ रहे थे
कि कहां थे तुम सब जब मैं हर रोज़
कुछ और अकेला हो रहा था,
कहां थे जब मैं ज़िन्दगी से हर रोज़
लड़ते हुए कुछ और थक रहा था,
एक मज़बूत चट्टान थे आप
वो चट्टान जो बहुतों को आश्रय तो देती है
पर सबसे अधिक आघात भी झेलती है
और उसका संरक्षण सिर्फ अवनि या आकाश,
ही कर पाते हैं, फूलों से सजे आप किसी
चक्रवर्ती सम्राट से दिख रहे थे और जब यहां
लोग छोटी-बड़ी बातों का रोना लिए बैठे थे
आप हर्षित से अपने स्वर्ण रथ पर सवार
तेज़ी से स्वर्गलोक की ओर बढ़ रहे थे
वास्तव मे, बहुत अप्रत्याशित ही थी
हमारी 'वो आख़िरी मुलाक़ात'