Wednesday 11 December 2019

कुछ अटपटी कुछ चटपटी सी बातें

जब दीवार पे पैर टिकाये खड़े,
घंटों बीत जाते थे
नहीं नहीं, बैठूंगा नहीं कहते- कहते भी
तुम एक-आध घंटे और रुक ही जाते थे
जब बातों- बातों में दोपहर से शाम
और शाम से रात हो जाती थी
जब पहली से आख़िरी बस का सफ़र
तुम घड़ी पे नज़र गड़ाए यूँ ही
तय कर जाते थे, और फ़िर भी अंत में
ऑटो पकड़ कर ही घर जाते थे
तब कई बार के अलविदा के बाद भी
शेष रह जातीं थीं ना जाने कितनी
अटपटी सी चटपटी सी बातें
तुममे मुझको, मुझमे तुमको
ज़िंदा रखतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें

जब परिस्थितियों की जटिलता
माहौल में भारीपन सा भर देती थी
जब अपरिहार्य मौन की चादर हमे
स्वयं में पूरी तरह ढक लेती थी
जब मैं तुम्हे चुपके से देखती पर
तुम नज़रें कहीं दूर गड़ाए रहते थे
जब बहुत कुछ होता था कहने को
पर शब्द चुपचाप ही आँखों से
टपक जाया करते थे,
जब अर्थपूर्ण सब गूढ़ बातें
बेमानी सी लगतीं थीं,
तब उस सन्नाटे को चीर हमे
ठहठहाने को मजबूर कर देतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें
तुममे मुझको, मुझमे तुमको
ज़िंदा रखतीं थीं
वो अटपटी सी चटपटी सी बातें

Friday 28 June 2019

कुछ था मुझमें

कुछ था मुझमें जो तुम्हारे साथ चला गया
तुम्हारा अक्स, तुम्हारी परछाईं  ढूंढ़ती हूँ 
तुम्हारी यादों की सीपी को मुठ्ठी में बाँधें 
लड़खड़ाते पाँवों से हर रोज़ बढ़ती हूं 
जानती हूँ की इस सीप से अब फ़िर
कभी कोई मोती नहीं निकलेगा  
कहते थे तुम लिखती रहना 
मेरे लफ़्ज़ , वो अल्फ़ाज़ जो 
मन के किसी कोने में बिखरें हैं 
को बड़ी मुश्किल से बीनती हूँ 
तरसती हूँ जब तुम्हें इक पल देखने को 
तो बस धीरे से ये आँखें मूँद लेती हूँ 
देखती हूँ तुम्हे नन्हे-२ पाँवों से
किसी के आँगन में खेलते 
सोचती हूँ एक प्यारी सी माँ होगी 
जो तुम्हारे माथे को सहलाती होगी 
तुम्हे मीठी-२ लोरियाँ सुनाती होगी 
शायद कोई चंचल सी बहन होगी 
जो बात-बात पर लाड़ दिखाती होगी 
रूठते होगे तुम तो बाँहे गले में डाल  
बड़े प्यार से झूल जाती होगी 
इतने में ही आँखों से कुछ मोती
मेरी बंद मुठ्ठी पर टपक जाते हैं  
और होंठों पर हल्की सी मुस्कान
लिए, मैं फिर जी पड़ती हूँ  
कुछ लोग कहते हैं मैं कमज़ोर हूँ 
पर क्या किसी को अपनी हर साँस में
ज़िंदा रख पाना साहस नहीं ?
कौन जाने? शायद हो भी, पता नहीं
एक सन्नाटा सा पसरा है हर ओर अब
और इसी चादर को ओढ़े मैं सोती हूँ
तुम्हारी यादों की सीपी को मुट्ठी में 
भींचे हर रोज़ गिरती-सम्हलती हूँ 
वो लफ़्ज़, वो अल्फ़ाज़ जो न जाने
कहाँ गुम हो गए,को खोजती-बुनती हूँ
कहते थे तुम लिखती रहना, सिर्फ
इसलिए एक बार फिर लिखती हूँ 
कुछ था मुझमें जो तुम्हारे साथ चला गया 
तुम्हारा अक्स, तुम्हारी परछाईं ढूंढ़ती हूँ...