Friday 12 December 2014

प्रकृति

सुना है कि!!!
जब दर्द आँखों से छलकता है, तो कविता बनती है
इन शब्दों की हर कड़ी, हम-आप से कुछ कहती है
जब रात की ख़ामोशी दिन के कोलाहल से, ज़्यादा सुख देती है
जब पत्तों की सरसराहट इन कानों में, चुपचाप से कुछ कहती है
जब झींगुरों की आवाज़ किसी मधुर संगीत सी, मोहक लगती है
जब जुगनुओं की चमक तमाम रौशनी को, मद्धम करती है
जब मिट्टी की भीनी-२ ख़ुश्बू, किसी इत्र सी सुगन्धित लगती है
जब बादलों की गड़गड़ाहट मन मे एक, उमंग सी भर देती है
जब ओस की नन्ही-नन्ही बूँदें इस तन-मन को, भिगो देतीं हैं
जब रंग-बिरंगी कलियाँ जीवन के तम को, धो देतीं हैं
जब कोयल अपने साथ कुहुकने को, मजबूर कर देती है
और जब प्रकृति वात्सल्य से हमें, अपनी गोद में भर लेती है
तब ज़िन्दगी बस इन्ही कुछ लम्हों में, सिमट जाती है
वास्तविकता ये है कि, तब भी एक कविता बनती है
और वो कविता लिखी, पढ़ी, कही या सुनी नहीं जाती
बल्कि हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में जी जाती है