Saturday 3 May 2014

अस्मिता

ये पंक्तियाँ उन तमाम स्त्रियों को समर्पित हैं जो हर छण अपने अस्तित्व को खोजने में अपने आप से जूझ रहीं है


स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

चल रही हूँ निरंतर
थाम कर मंन का समंदर
कुछ देर अब थोड़ा ठहर कर
करना विश्राम चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में थोड़ा विराम चाहती हूँ

पा रहे और खो रहे क्या
जानना ये है ज़रूरी
दौड़ते रहे सदा ही
क्यूँ दौड़ ये अब भी अधूरी
रोक कर थोड़ा स्वयं को
देना यह ज्ञान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में थोड़ा विराम चाहती हूँ

कैसी अदृश्य बेड़ियाँ
जकड़े हुए पैरों को मेरे
भाव कितने ही ह्रदय में
क्यूँ अड़चनें इनको हैं घेरे
लाँघ कर सारी ये अड़चन
छूना आसमान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

मानना अवमानना का
खेल यूँ कब तक चलेगा
नैराश्य में डूबा ये जीवन
क्या यूँ हीं हर पल ढलेगा
प्राप्त करके फिर स्वयं को
देना सम्मान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

कर दिया जीवन समर्पित
एक छोटे से परिवार को
फिर भी क्यूँ पाया उन्ही से
बस उलाहना अपमान को
तोड़ कर सारे ये बंधन
पाना नव आयाम चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ

प्रश्न हैं सहस्र मन में
उत्तर मिलें क्या इसी रंण में
प्राप्त कर परमात्मा को
होना अन्तर्ध्यान चाहती हूँ

स्वयं से स्वयं की पहचान चाहती हूँ
इस जीवन में नयी उड़ान चाहती हूँ 

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